अन्य देशों की तुलना में भारत में जेलों की क्या स्थिति है? इस पर सबके अपने-अपने दावे हैं। जेल प्रबंधन और सरकारी पक्ष जहां इसके बेहतर होने का दावा करता है, वहीं मानवाधिकार आयोग सहित कई अन्य संगठनों की रिपोर्ट्स इसपर उंगली उठाती नजर आती हैं। ऐसे में कई सवाल खड़े होते हैं। हकीकत क्या है, दावों-प्रतिदावों में कितनी सच्चाई
है, कौन सच्चा है और कौन झूठा? दरअसल, मानवाधिकार आयोग सहित अन्य संस्थाओं के आंकड़े गवाही देते हैं कि दुनिया के कई अन्य देशों की तुलना में भारत की जेलों में बंद लोगों की संख्या कम है। बावजूद इसके भारत की जेलों की अच्छी स्थिति नहीं है। इन आंकड़ों से भीड़भाड़, विचाराधीन कैदियों की लंबे समय तक हिरासत, मेडिकल फेसिलिटी की कमी, जेल कर्मचारियों के उदासीनता और अमानवीय दृष्टिकोण जैसे गंभीर आरोपों की पुष्टि होती है। अगर, जेलों में क्षमता से अधिक कैदियों विशेषकर विचाराधीन कैदियों की भीड़ की बात करें तो यह निश्चित रूप से चिंता का विषय रहा है। दरअसल, 1970 में कानून प्रवर्तन सहायता प्रशासन राष्ट्रीय जेल जनगणना ( ) से पता चला था कि जेल के 52 प्रतिशत कैदी मुकदमे की प्रतीक्षा कर
रहे थे। अगर जेलों में भीड़भाड़ कम करनी है तो विचाराधीन कैदियों की संख्या में भारी कमी लानी होगी। बेशक, यह अदालतों और पुलिस के साथ मिलकर काम किए बिना संभव नहीं हो सकता और इसके लिए आपराधिक न्याय प्रणाली के तीनों अंगों को मिलजुल कर सामंजस्यपूर्ण ढंग से कार्य करना होगा। भारी अदालती काम के बोझ और जटिल अदालती प्रक्रियाओं के बीच पुलिस की भूमिका लापरवाही भरी होती है। वह गवाहों को तुरंत पेश करने में प्रायः असमर्थता व्यक्त करती है। बचाव पक्ष के वकील हमेशा स्थगन की मांग करने पर आमादा रहते हैं। भले ही उनकी इस तरह की रणनीति उसके क्लाइंट को नुकसान पहुंचाती हो। इन प्रवृत्तियों के कारण त्वरित सुनवाई संभव नहीं हो पाता। मुकदमा लंबा खिंचता जाता है। फास्ट ट्रैक अदालतों ने इसमें काफी हद तक मदद की है, लेकिन इससे लंबित मामलों की समस्या पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा है। जब तक मौजूदा ‘स्थगन संस्कृति’ जारी रहेगी अदालतों की संख्या बढ़ाने से भी काम नहीं चलने वाला है।