इस वर्ष जनवरी माह में बांग्लादेश का चुनाव संपन्न हुआ। उसमें प्रधानमंत्राी शेख हसीना ने पांचवी बार जीत हासिल की।
300 सदस्यीय सदन में उनकी अवामी लीग ने 222 सीटों पर जीत का परचम लहराया। 63 सीटें निर्दलीयों के पक्ष में गईं। यह चुनाव विपक्ष की गैरमौजूदगी में संपन्न हुआ। दरअसल बांग्लादेश के चुनाव ने लोकतंत्रा का एक अलग मॉडल प्रस्तुत किया।
इसमें चुनाव मात्रा एक औपचारिकता थी।सत्ताधारी गठबंधन की पुनर्वापसी सुनिश्चित थी। क्योंकि पूर्व प्रधानमंत्राी खालिदा जिया
के नेतृत्व वाले मुख्य विपक्षी दल बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी सहित 15 विपक्षी दलों ने चुनाव का बहिष्कार कर दिया था। चुनाव
मैदान में सत्तारुढ़ अवामी लीग और उसके सहयोगियों के अलावा सिर्फ निर्दलीय उम्मीदवार थे। कहते हैं कि उनमें भी ज्यादातर सत्तारूढ़ दल के डमी प्रत्याशी थे।इस चुनाव ने जर्मनी के तानाशाह एडोल्फ हिटलर का जमाना याद दिला दिया जब हिटलर ने अपनी नात्सी पार्टी के अलावा जर्मनी के तमाम राजनीतिक दलों को अवैध करार दिया था और अपनी पार्टी के ही प्रत्याशियों के बीच चयन का विकल्प दिया था।हालांकि बांग्लादेश की स्थितियों की तुलना हिटलर की जर्मनी से नहीं की जा सकती। बांग्लादेश के उदय के बाद से हीं वहां कट्टरपंथ और उदारवाद के बीच रस्साकशी चलती रही है। वहां यदि एकतरफा चुनाव कराया गया तो इसका कारण सत्तारुढ़ दल की तानाशाही को बरकरार रखना नहीं बल्कि कट्टरपंथी सांप्रदायिक तथा आतंकवाद की पोषक शक्तियों को सत्ता में आने से रोकना था। सैनिक शासन अथवा खालिदा जिया के प्रधानमंत्रित्व काल में कट्टरपंथी देश की शांति व्यवस्था के लिए खतरा बन गए थे। इसबार भी उनकी नेशनलिस्ट पार्टी का गठबंधन जमाते-इस्लामी जैसे दलों के साथ था। उसका सत्ता में आना लोकतंत्रा की व्यवस्था के लिए घातक था। खालिदा जिया का झुकाव चीन, पाकिस्तान आदि की तरफ था जबकि शेख हसीना का भारत के साथ हमेशा सौहार्द्रपूर्ण रिश्ता रहा है। 1947 में भारत की आजादी के बाद मुस्लिम आबादी की बहुलता वाले पूर्वी और पश्चिमी हिस्से को भारत से अलग कर पाकिस्तान का हिस्सा बनाया गया था। इन दोनों इलाकों में कभी सामंजस्य नहीं रहा। दोनों दो छोर पर थे और भौगोलिक रूप से भी उनके बीच 1500 किलोमीटर की दूरी थी। धर्म एक था लेकिन पश्चिमी पाकिस्तान उर्दू भाषी था जबकि पूर्वी पाकिस्तान बांग्ला भाषी था। सत्ता की बागडोर शुरू से पश्चिमी पाकिस्तान के हाथों में रही थी और पूर्वी हिस्से को लगातार उपेक्षा और प्रताड़ना का शिकार बनाया जा रहा था। 1970 के चुनावों में शेख मुजीबुर्रहमान के नेतृत्व में अवामी लीग ने भारी बहुमत के साथ जीत हासिल की थी। पाकिस्तान की सरकार ने इन परिणामों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था। इसके बाद भयंकर मारकाट शुरू हो गई थी। 26 मार्च 1971 को शेख मुजीबुर्रहमान ने पूर्वी पाकिस्तान को बांग्लादेश नामक स्वतंत्रा राष्ट्र घोषित कर दिया। इसपर पश्चिमी पाकिस्तान ने हमला कर दिया और मुजिबुर्रहमान को
जेल में डाल दिया। उस समय भारत की प्रधानमंत्राी श्रीमती इंदिरा गांधी ने दखल दिया जो भारत-पाक युद्ध में परिणत हो गया। इसमें पाकिस्तान की बुरी तरह से हार हुईं भारत नें मुजीबुर्रहमान को पाकिस्तान की जेल से आजाद कराया और बांग्लादेश को अलग राष्ट्र के रूप में मान्यता प्रदान की।1975 में मुजीबुर्रहमान बांग्लादेश के राष्ट्रपति बने लेकिन उसी साल अगस्त में
सैनिक तख्तापलट के बाद उनकी हत्या कर दी गई और सैनिक शासन लागू करदिया गया। 1977 में जनरल जियाउर्रहमान राष्ट्रपति बने और उन्होंने इल्लाम को संवैधानिक मान्यता दे दी। 1982 में उनकी जगह जनरल एरशाद सत्ता में आए। उन्होंने
राजनीतिक दलों को अवैध करार दिया और संविधान को खत्म कर डाला। उन्होंने सभी स्कूलों में अरबी और कुरआन की पढ़ाई
अनिवार्य कर दी। इस फैसले के खिलाफ जबर्दस्त आंदोलन खड़ा हो गया। इसके बाद सीमित राजनीतिक गतिविधियों की अनुमति
दी गईं 1983 में उन्होंने चुनाव कराया। सैनिक शासन खत्म हुआ और वे राष्ट्रपति बन गए।1990 में उनकी तानाशाही और कट्टरता के खिलाफ जबर्दस्त आंदोलन हुआ जिसके बाद उन्हें गद्दी से हटना पड़ा। उन्हें भ्रष्टाचार के आरोप में जेल जाना पड़ा। इसके बाद जियाउर्रहमान की विधवा खालिदा जिया प्रधानमंत्राी बनीं। उन्होंने संविधान में संशोधन कर राष्ट्रपति की शक्तियां कम कर प्रधानमंत्राी पद को सत्ता का मुख्य केंद्र बना दिया। उनके नेतृत्व में कट्टरपंथी सक्रिय रहे। 1996 के चुनाव में खालिदा चुनाव हार गईं और अवामी लीग सत्ता में वापस लौटी। फिर मुजीबुर्रहमान की पुत्राी शेख हसीना प्रधानमंत्राी बनीं। कटटरपंथियों ने उनके
खिलाफ आंदोलन किया। वर्ष 2001 में कट्टरपंथियों की मदद से खालिदा जिया फिर सत्ता में आ गईं। लेकिन 2008 में अवामी लीग ने उन्हें पराजित कर सत्ता में वापस लौटी। शेख हसीना फिर प्रधानमंत्राी बनीं। इसके बाद से अभी तक शेख हसीना की अवामी लीग सत्ता में बनी रही।इस तरह बांग्लादेश की उत्पत्ति के बाद से अभी तक कट्टरपंथी और लोकतांत्रिक ताकतों के बीच सत्ता संघर्ष चलता रहा। 2024 के चुनाव को तकनीकी रूप से लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ कहा जा सकता है लेकिन जो भी किया गया वह लोकतंत्रा को बचाए रखने के लिए किया गया। कट्टरपंथियों के मंसूबों पर पानी फेरने के लिए एकतरफा चुनाव कराया गया जिसका भारत ने पूरा समर्थन किया। इस तरह बांग्लादेश के चुनावों ने लोकतंत्रा की नई परिभाषा गढ़ी है।